Lalita Vimee

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इकदास्तां ,भाग=2

 तमाम रात बीत गई थी,पंखा आवाजें दे देकर इतना थक गया था कि उसका सुर भी मंदा हो गया था। प्रभात बेला के पाँच बज गए थे।एकाएक  वो उठ बैठा था,"प्रीत थोड़ा और रूकती ना"  वो बुदबदा रहा था।
अच्छा बाबा अच्छा अभी अपडेट हो जाता हूँ, नहीं पिऊँगा बस,पर तुम भी तो तभी करीब होती हो जब मैं पीता हूँ, अच्छा बाबा माफ कर दो आध घंटा तो दे दो।
एक मुस्कराहट थी विजयपाल के होठों पर।उसनें उठ कर स्टोव जलाया था।चाय रख कर ब्रश कर लिया था। बिना दूध की चाय पीकर उसनें फटाफट कमरा साफ करना शुरू कर दिया था।प्रीत को गंदगी बिल्कुल पंसद नहीं आती, आँखों में एक सुकून की नमी और होठों पर हल्की सी मुस्कराहट सजाये  सर्फ डालकर विजय ने सारा कमरा धो दिया था।फिर नहाते हुए अपने कपड़े भी धो दिए थे।प्रेस किये कपड़े पहन कर तैयार था।
अब बिल्कुल मेरे देवानंद जैसे लग रहे हो विजय बाबू।
विजय ने चौंक कर इधर उधर देखा था। 
प्रीत आँख मिचौली खेलने लगती हो,सुबह होते ही,फिर कहती हो शराब मत पीया करो।
अब चाय पी लो मास्टर साहब,   ताजा दूध  आ चुका है।
बातों बातों में बहलाना तो कोई तुझसे सीखे।
अब थोड़ी देर के लिए मुझे भूल जायें और अपनी दिनचर्या पर ध्यान दें।
विजय ने ताजे दूध की तेजपती वाली चाय बना ली थी,दो बिस्किट के साथ चाय  पीता हुआ विजय कुछ सोच ही रहा था कि सीढियों से पदचाप सुनाई दीथी। उसने मुड़ कर देखा था।उसके कलीग राजेश्वर सिहं थे।राजेश्वर हमेशा बड़े भाई सा मान देते थे विजय को।
गुडमार्निंग दादा।
गुडमार्निंग राजेश्वर, कैसे हो।
बहुत बढि़या दादा, आज तो घर चलोगे ना।कल और परसों की छुट्टी हे।
देखते हैं,चाय पीयेगा?
नेकी और पूछपूछ दादा?
विजय ने राजेश के लिए चाय बनाई थी।
आज तो कमरा एकदम झक्कास लग रहा है दादा।
अभी सुबह सुबह ही साफ किया है यार, रात को थोड़ी ज्यादा हो गई थी।
छोड़ दे दादा पछतायेगा वरना,कोई बीमारी लग जायेगी।
ठीक कहते हो।
अब  तो सारी बातों से सहमत होगे दादा, स्कूल की छुट्टी होते ही तुम्हारे अंदर चाचा गालिब की आत्मा प्रवेश कर जाती है।अभी देखना कैसे जैंटलमैन लग रहे हो और पीने के बाद अपनी शक्ल देखा करो।वैसे दादा तुम्हें आज तक किसी ने कहा नहीं कि तुम हुबहू देवानंद लगते हो।
वो कहती है ना।
कौंन दादा कौन?
आरे वही तो मैं पूछ रहा हूँ  कौन कहता है।
मैं कहता हूँ, स्कूल का सारा स्टाफ कहता है।
चले भाई स्कूल में देर हो जायेगी वरना।
हाँ दादा चल स्कूल का ताला हम लोगों ने ही खोलना है।राजेश्वर हँसा था।
दोनों कमरे को ताला लगा कर निकल  पड़ते हैं।
बहुत ही गंभीर प्रवृत्ति का होनहार अंग्रेजीअध्यापक था विजयपाल। एकबार जो कक्षा में समझा देता था,विधार्थी उस को शायद ही कभी भूल पाते हो। उसके समझाने का बताने का तरीका ही ऐसा होता था।अपने काम को इमानदारी से करना उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा असूल था शायद।बहुत अच्छा तबला भी बजाना आता था विजयपाल को।गज़ल सुनने, गुनगुनाने, और लिखने का भी बहुत शौंक था।
       स्कूल पहुँच कर अपनी क्लास निपटा कर,विजयपाल प्रिंसिपल मैडम की दी हुई कुछ फाईल भी निपटाता है, हालांकि ये उसकी नौकरी का हिस्सा नहीं है पर फिर भी वो हर काम करने के लिए तत्पर  रहता था जो उसे आता  हो। छुट्टी का घंटा बजते ही सब अपने अपने गंतव्यों पर पहुँचने के लिए तत्पर थे।एक विजयपाल ही ऐसा था जिसे कोई जल्दी नही थी।
तभी राजेश्वर आया था,"दादा चलना नहीं क्या घर"?
मैं कल आऊँगा राजेश्वर, तूं निकल जा आज। कुछ फाईलस का काम भी करना है।
दादा पिछली बार भी तूं नहीं गया था,  चाची पूछने भी आई थी,चल ना।
कल सुबह सुबह आ जाऊँगा।तूं निकल बस का टाईम भी हो रखा है।
जो आदेश बड़े भाई,  राजेश्वर निकल गया था।
बस में बैठा राजेश्वर यही सोच रहा था कि क्यों नहीं विजयपाल हर सप्ताह घर जाता।यहाँ ढाबे से खाना पड़ता है,तो कम से कम छुट्टी वाले दिन तो हम घर का खाना खा सकते हैं।अपने घर परिवार वालों से मिल सकते हैं।अपने बीवी बच्चों के साथ कुछ वक्त बीता सकते हैं। खैर उसकी मर्जी।
स्कूल के चपड़ासी ने विजयपाल को ढाबे से खाना लाकर दे दिया था।वो स्कूल की छुट्टी के बाद भी वहीं बैठा काम कर रहा था।फाईलों को निपटाते निपटाते विजय पाल को पाँच बज गए थे।बीच में चपड़ासी  दो बार चाय भी  दे गया था।  आफिस को ताला लगा कर चाबी चोकीदार को पकड़ा कर विजयपाल स्कूल से निकलने लगा तो जैसे उसके दिमाग मेंएक खुमारी सी थी ।रास्ते  से ही उसनें  शराब खरीद ली थी।सीधा कमरे पर ही पहुँचा था। एक  अजीब सी बैचेनी घेर लेती थी उसे शाम के वक्त, एक तन्हाई ,एक सूनापन उसके चारों तरफ मंडरा जाता था।ऐसा नहीं था कि यहाँ उसके साथ ये समस्या होती थी।घर में भरेपूरे परिवार के बीच बैठा वो अपनी तन्हाई और अजीब सी घबराहट से जूंझता था। शराब के दो जाम अंदर जाते ही उसे बहुत सुकून मिलता था।
 वो अभी कपड़े बदल ही रहा था कि सीढियों का दरवाजा बजा था।
मास्टरजी
कौन है?
पंखे का मिस्त्री हूँ जी, राजेश्वर मास्टरजी ने भेजा था।
आजाओ ऊपर।
जी आया। 
पंखा अपनी मधुर आवाज से सरगम सुना  ही रहा था, इसलिए मिस्त्री को कुछ पूछने बताने की जरूरत ही नहीं पड़ी। दस मिनिट के अंदर ही पंखे को ठीक किया आवाज़ और चाल बदल गई थी।
कितने पैसे हुए भाई?
बीस रूपये बनते हैं मास्टर जी,आपकी जो इच्छा हो दे दो। राजेश्वर मास्टरजी वैसे भी मेरे दूर के रिशतेदार  हैं।
विजय ने उसे बीस का नोट दिया था।मिस्त्री ने पाँच का नोट वापिस कर दिया था।
उसके जाते ही विजय ने सीढियों से उपर आने वाला दरवाजा बंद कर लिया था और गिलास में शराब डाल कर अपने गले के हवाले कर दिया था।शराब। के अंदर जाते ही जैसे उसके दिलोदिमाग को सुकून मिल गया था। तभी नीचे से फिर दरवाजा बजा था।
विजय मास्टर दूध ले ले बेटा।
आया चाचा।
उफ्फ़ इसी को भी अभी आना था। वह नीचे आकर दूध ले गया था।   स्टोव  जला कर दूध गर्म कर लिया था उसनें। ढक कर चारपाई के पास ही रख लिया था।पानी का जग और खाली गिलास भी रख लिया था।वो अब यहाँ से न उठने का सारा इंतजाम कर रहा था।प्रीत के आने पर कोई  चीज भी खलल न डाले।वो फिर नीचे गया और जाकर बंद दरवाजे को दोबारा देख आया था।
दूसरा गिलास जैसे ही उसने मुँह को लगाया था,किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया था।
ये सब क्या है,क्यों अपने आप को खत्म करने पर तुले हो।?
मुझे सिर्फ उसी माहौल में जीना है, जिसमें तुम मेरे साथ मेरे करीब रहो।
कैसी बातें करते हो विजय, शराब पीने से मैं तुम्हारे करीब कैसे रह सकती हूँ, मैं तो हर पल तुम्हारे करीब हँ,तुम में ही तो हूँ मैं।
मुझे ये किताबी बाते मत सुनाओ प्रीत,बस मेरे यूंही करीब रहो, ताकि ज़िंदगी के ये लम्हें तो मुझे अपने से लगें।
उसने तीसरा गिलास भी भर लिया था,और जैसे ही उसने उसे मुँह से लगाया।
बस कर दो विजय वरना मैं कसम दे दूंगी तुम्हें अपनी, फिर कहोगे मुझे बाँधा मत करो प्रीत, सारी उम्र बँधा सा ही रहा हूँ मैं।
इसके बाद नहीं लूंगा ,लो मैं खुद ही बँध गया तुम्हें बाँधने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
नशा विजय पर हावी हो रहा था। वो जैसे चारपाई पर लुढ़कने सा ही लगा था। नीचे से फिर दरवाजा बजा था।
प्रीत देखो तो कौन है,जो इस समय दरवाजा पीट रहा है।
अच्छा ठीक है भ ई मैं ही जाता हूँ।
दिवारों को पकड़ कर नीचें पहुँचा था
।" कौन हे भाई"?
विजय मास्टर जी, तार है आपका।
अपने को सयंमित करने की कौशिश करके उसने दरवाजा खोला, तार  लेकर कुंडी बंद करके लड़खड़ा ता हुआ ऊपर पहुँच गया था।
तार माँ ने भेजा था, "रीच सून" लिखा था। तीन सप्ताह से घर नहीं गया था।मन भी नहीं करता था घर जाने को।इसलिए माँ ने तार भेज दिया होगा।
उसने बोतल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि उसे लगा कि प्रीत हँस रही है।
अभी तो तुम कह रहे थे कसम मत दे प्रीत मैं खुद को खुद ही बाँध लूंगा, और अभी देखो चला  नहीं जा रहा, पर शराब जरूर पीनी है। ठीक है पीते रहो, मैं जा रही हूँ।
अरे नहीं प्रीत, नहीं पीता यार ,वो तो माँ ने तार भेजा था,इसलिए परेशानी हो गई।
हर परेशानी का हल शराब  नहीं है  विजय, तुमनें कभी सोचा है, गर शराब हल होती तो ये हमारी कहानी कुछ और ही होती।
ये भाषण बाजी बंद कर दे प्रीत एक तूं ही तो है, जो मुझे समझ सकती है। मैं तेरे साथ बटना चाहता हूँ,तूं शायद समझ सके ,तेरे बिन मैं कैसे हालात से गुज़र रहा हूँ। मैं लम्हां लम्हां खत्म हो रहा हूँ। मुझे तेरा साथ चाहिए प्रीत तेरी बाहों का सहारा चाहिए। ताकि मैं अपना दर्द भूल जाऊँ और कुछ पल चैन की नींद सो सकूं।
प्रीत की बाहें फैल गई थी,और विजय की रात उसकी बाहों में आराम से कट गई थी।
 सुबह सुबह साढेचार बजे के करीब उसे जैसे प्रीत ने ही झिंझोड़ा था,"विजय तुम्हें जाना भी है,सुबह साढे छह की तो बस है,उठो, माँ का तार भी तो आया हुआ है।
मुझे कहीं नहीं जाना प्रीत, दो दिन की छुट्टी है,इसे मैं तुम्हारे साथ ही बिताना चाहता हूँ।
उठो विजय तुम्हें जाना होगा।
तुम जानती हो माँ ने जाते ही क्या कहना है,और वो सब मैं नहीं कर सकता ।ये कोई आज की बात नहीं है, सात साल बीत चुके हैं।मैं वो नहीं कर सकता जो वो चाहती हैं।
कब तक हकीकत से भागते रहोगे विजय?
मेरी हकीकत तुम हो प्रीत।
मैं तुम्हारी हकीकत हूँ जो सिर्फ तुम तक हूँ,पर माँ की हकीकत , समाज की हकीकत अलग है विजय। उठोऔर जाओ वरना बस निकल जायेगी।
मैने कहा न  नहीं जाना मुझे।
विजय चले जाओ प्लीज,वरना माँ यहाँ आयेंगी परेशान होते हुए।
अच्छा ठीक है यार चला जाऊँगा, पर एक शर्त है, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।
विजय, कुछ चीजें बिल्कुल असंभव होती हैं,और उन पर किसी का इख्तियार नहीं होता।
मेरी ज़िंदगी में तुम पर जो मेरा इख्तियार है उसे अब कोई नहीं छीन सकता प्रीत।
विजय
अच्छा बाबा उठता हूँ।
उठ कर रात के दूध से ही चाय बनाई थी विजय ने, कमरा साफ कर नहा कर तैयार हो गया था। चलते चलते जाने क्या सोच कर बची हुई शराब से एक गिलास भर कर पी लिया था उसने। सीढ़ी पर ताला लगा कर बसस्टाप पर पहूँच गया था।बस जैसे उसी का इंतजार कर रही थी।उस के बैठते ही चल पड़ी थी।
ज्यादा सवारियाँ नही थी  बस में लगभग खाली ही थी। दो सवारियों वाली सीट पर खिड़की से सट कर बैठ गया था विजय।
प्रीत तेरी बात मान कर ही जा रहा हूँ मैं घर।
एक खामोशी एक सन्नाटा जिसमें बीच बीच में बस की बजती खिड़कियाँँ  और हार्न खलल डाल देते थे।
प्रीत सुनो ना मैं तुमसे ही बात कर रहा हूँ। प्रीत जवाब दो मेरी बात का।
तुम्हें पता है न विजय मुझे तुम्हारा शराब पीना बिल्कुल पंसद नहीं।
बिना शराब के मैं  अधूरा सा हो जाता हूँ प्रीत,तुम  भी  तो नहीं  रहती हो मेरे साथ।
 ये कैसी पूर्णता है विजय, ये तो मृग मरीचिकाहै।

तो जीने दो न मुझे मेरी मृगमरीचिका के साथ,मैं इसी में खुश हूँ।

प्यास पानी से बुझती है विजय, रेत के दीदार से नहीं।
जब मैं इसमें संतुष्ट हूँ तो तुझे क्या समस्या है।
बस रूक चुकी थी, ड्राइवर  भी गाड़ी से नीचे उत्तर चुका था।पर विजय था कि अपनी  मृगमरीचिका में ही खोया था।
उतरना नहीं है क्या साहब आपको? कन्डैक्टर नेउसका कन्धा  हिलाया था।
हं ओह सारी।
शराब की आती गंध से कन्डैक्टर भी मुस्करा दिया था।
विजय उठ कर चला गया था।बस स्टैंड से घर जाने वाली रिक्शा पकड़ ली थी उसने।वो जाते ही माँ के  प्रश्नों के उत्तर ही सोच रहा था, रिक्शा से उतरा भी नहीं था कि घर के सामने थोड़ी गहमा गहमी दिखी, उसका जी घबराने लगा था। वो अपने आस पास देख रहा था,शायद वो प्रीत को ढूंढ रहा था।पता नहीं क्यों उसे ऐसा लग रहा था कि वो किसी चक्रव्यूह में घिरने वाला है, तभी उसे एक जोरदार चक्कर आया और वह नीचे गिर पड़ा।
क्रमशः
कहानी,इक दास्तां
लेखिका ललिता विम्मी
भिवानी, हरियाणा

 


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12 Comments

Seema Priyadarshini sahay

06-Dec-2021 05:54 PM

बहुत सुंदर लिखा आपनेमैम।

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Chirag chirag

02-Dec-2021 06:36 PM

Nice pened

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Fauzi kashaf

02-Dec-2021 09:53 AM

Bhut badhiya

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